विकास वाजपेयी
हमारी गंगा जमुनी तहजीब के माथे के नासूर और न जाने कितनों की जान से प्यास बुझाने वाले अयोध्या विवाद का पटाक्षेप अब होने को है। सैकड़ो वर्षों से चल रहे इस विवाद पर सुप्रीम कोर्ट में जारी नियमित सुनवाई के 37वें दिन पाँच जजों की बेंच ने अब ये साफ कर दिया है कि अपनी दलीलें रखने के लिए अब 17 अक्टूबर के बाद का समय नही दिया जा सकता।

हिन्दू और मुसलमानों के बीच जहर घोलनेवाले जिस अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद पर सबकी निगाहें टकटकी लगाए है उसकी सुनवाई अब समाप्ति की तरफ बढ़ गई है। देश मे राजनीतिक और सामाजिक कटुता को बढ़ावा देने वाले इस मामले की सुनवाई 17 अक्टूबर को इसी सप्ताह समाप्त होने वाली है और इसके बाद कोर्ट अपना फैसला सुरक्षित रख लेगा। जिसके पीछे ये तर्क भी है कि इस पाँच सदस्यों की अगुवाई करने वाले मुख्यन्यायाधीश रंजन गोगोई के 17 नवंबर को सेवानिवृत्त होने के पहले ही इस मुकदमे का पटाक्षेप हो जाएगा। यदि सीधे शब्दों में कहे तो दीपावली के पहले इस मामले की पूरी सुनवाई करने के साथ साथ दीपावली के बाद कभी भी इस मुकदमे का निर्णय आ सकता है।
वर्षों से लंबित इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की पीठ की अगुवाई करने वाले देश के मुख्यन्यायाधीश रंजन गोगोई ने नियमित सुनवाई के लिए सभी पक्षकारों से 17 अक्टूबर के पहले अपनी दलीलें देने को कहा है। 6 अगस्त से जारी इस नियमित सुनवाई में 38 दिन बीतने तक हिन्दू पक्ष अपीलों रामलला विराजमान, हिन्दू महासभा, श्रीराम जन्मभूमि समिति, गोपाल सिंह विशारद, और निर्मोही अखाड़ा की तरफ से अपनी अपनी दलीलें कोर्ट में पेश की गई है तो मुस्लिम पक्ष की दलीलें और उनके प्रतिउत्तर भी कोर्ट में पेश हो चुके है। सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की तरफ से सोमवार को राजीव धवन की तरफ से भी दलीलें पेश की गई ।
आशा यही की जा रही है कि समाज मे कटुता फैलाने वाले इस मामले का जल्द निपटारा हो जिससे इसके राजनीतिक और सामाजिक उत्पादन के पहलुओं पर रोक लगाई जा सके। वैसे इलाहाबाद हाईकोर्ट की पीठ ने 30 सितंबर 2010 को इस मामले में अपना फैसला सुनाते हुए इस पूरे परिसर की भूमि को तीन मुख्य पक्षकारों को बाट दिया था जिसमे एक हिस्सा मुस्लिम पक्ष को तो एक एक हिस्सा क्रमशः रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़े को दिया गया था। जिसे दोनों पक्षों के अस्वीकार करने के बाद सुप्रीम कोर्ट में अपील के साथ दाखिल किया गया था। तभी से ये मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है।
बताते चले कि ऐसा कहा जाता है कि 1528 ईसवी में यहाँ श्रीराम का मंदिर हुआ करता था जिसको मुगल शासक बाबर के आदेश पर तोड़कर मस्जिद में बदल दिया गया था। हालांकि मंदिर होने के कई प्रमाणों में पौराणिक ग्रंथ रामायण और राम चरित मानस में भी उल्लेख मिलता है। और कालांतर में ये विवाद हिन्दू और मुसलमानों के बीच मे कटुता का कारण बनता रहा।
1853 में ये विवाद हिंसात्मक रूप ले बैठा और दोनों पक्षों में जमकर हिंसा हुई। बाद में ब्रिटिश हुकूमत ने 1859 ने मुस्लिम पक्ष को अंदर नमाज पढ़ने के लिए स्थान दिया तो हिंदुओं को पूजा अर्चना के लिए बाहर का स्थान निर्धारित किया गया। लेकिन ये विवाद इतिहास के साथ दोनों पक्षो में कटुता के साथ चलता रहा और 1949 को इस विवादित ढांचे के अंदर मूर्ति पाए जाने के समाचार से एक बार फिर विवाद गहरा गया।
हालांकि 1986 को स्थानीय कोर्ट के आदेश के बाद इस परिसर में पड़े ताले को खोलने का आदेश हुआ और लोगों को रामलला के दर्शन करने की सुविधा दी गई। इस पूरे मामले के सामाजिक और राजनीतिक निहितार्थ को देखते हुए विश्व हिंदू परिषद और भारतीय जनता पार्टी ने श्रीराम जन्मभूमि निर्माण का आंदोलन शुरू किया। जिसके भावावेश में 6 दिसंबर 1992 को कार्यसेवकों ने इस विवादित स्थल पर बने ढांचे को तोड़ दिया जिस मामले में उस समय के अगुवाई करने वाले लालकृष्ण आडवाणी, उमा भारती, सहित कई पर मुकदमा विचाराधीन है।
इस घटना के बाद गंगा जमुनी तहजीब वाले इस समाज मे कटुता अपने चरम पर पहुच गई और दस्तावेजों के मुताबिक 6 दिसंबर के बाद के दंगों में करीब 1500 से अधिक लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी थी।
हालांकि इस मामले के जितने सामाजिक सरोकार रहे है उससे भी ज्यादा राजनीतिक सरोकार रहे है कांग्रेस के शासन में बने लिब्रहान आयोग को इस पूरे मामले में अपनी रिपोर्ट सौंपने में 17 साल से भी ज्यादा समय लग गया।