हलुवा तो बन चुका, अब मुंह भी मीठा हो जाए

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आम बजट का इंतजार, इस बार बड़ी चुनौती

शैलेश अवस्थी

देश का आम बजट बन रहा है। वित्त मंत्रालय के सभी बड़े-छोटे अधिकारी और कर्मचारी देश दुनिया से बेखबर बजट को अंतिम रूप देकर उसे छपाने में जुटे हैं। नार्थ ब्लाक में वित्त मंत्रालय के दफ्तर में बजट पेश होने तक आवाजाही पर रोक है। इसके पहले हलुआ परंपरा भी पूरी की जा चुकी है। इसका स्वाद वित्त मंत्रालय ने चख लिया पर बड़ा सवाल यह है कि क्या आम आदमी भी इसकी मिठास महसूस कर सकेगा ?

यह आम बजट उस वक्त पेश किया जा रहा है, जब भारतीय अर्थव्यवस्था की गति बेहद सुस्त है। विकास दर 4.5 फीसदी तक लुढ़क चुकी है। बेरोजगारी ने युवाओं को निराशा के दरवाजे पर खड़ा कर दिया है, जो नौकरी पर हैं, उन पर तलवार लटक रही है, कुछएक को छोड़ दें तो ज्यादातर निजी कंपनियों में वेतन पैकेज में बढ़ोतरी पर ब्रेक लगा हुआ है। अप्रेजल कंप्यूटर पर डंप हैं। तरक्की के मौके कम नजर आ रहे हैं। आटो सेक्टर रेंग रहा है, रियल स्टेट संजीवनी पाकर सांस तो ले रहा है लेकिन खड़ा नहीं हो सका है। किसानों के संकट कम नहीं हो रहे हैं। महंगाई का मुंह इतना बड़ा हो गया है कि अब वह अपना मूल आकार ही नहीं ले पा रहा। प्याज के दाम 150 से 60 रुपये किलो पर आ गए तो इसे राहत कहा जा रहा है। आलू 20 रुपये से कम नहीं हो रहा। आम आदमी की रसोई का खर्च पिछले साल की तुलना में डेढ़ गुना तक बढ़ गया। छोटे और मझोले कारोबारियों को जीएसटी सता रही है तो औद्योगिक क्षेत्रों में भी रौकन नहीं है।

आम आदमी तो आम बजट की पेचीदगियां नहीं समझता और न ही उसके तकनीकि पहलू को समझना चाहता है। उसे तो बस जिज्ञासा होती है कि उसके लिए बजट में क्या है। क्या टैक्स स्लेब में परिवर्तन होगा। नौकरीपेशा चाहते हैं कि पांच लाख तक सालाना आमदनी पर उसे टैक्स न देना पड़े तो कम से कम वह अपने रोजमर्रा के खर्च पूरे कर सके। कारोबारी और उद्यमी चाहते हैं कि कर प्रणाली सरल हो, उनका उत्पीड़न न हो, सरकारी महकमें में उन्हें भेंट न चढ़ानी पड़े। माहौल एसा बने कि निवेश बढ़े। बाजार में मांग बढ़े तो उत्पादन भी बढ़े।

इसे यूं समझें। जब नौकरी होगी तो जेब में पैसा आएगा। नौकरी है तो वेतन बढ़ोतरी जरूरी है। तब लोगों की जेब में पैसा ज्यादा आएगा। नौकरी पर खतरा न हो। ये होगा तभी लोग खर्च करेंगे और बाजार में पैसा आएगा। यानी मांग बढ़ेगी। जाहिर तभी उत्पादन बढ़ेगा। बाजार में पैसे का आवागमन बढ़ेगा। निवेश भी बढ़ेगा। अर्थव्यवस्था तभी गति भी पकड़ेगी। हांलाकि बजट से पहले रियल स्टेट, बैंक और आटो सेक्टर को बूस्टर डोज दिया गया है, पर इसका कोई खास असर नहीं दिख रहा। यह हताशा का नहीं तो कम से कम निराशा का दौर तो है ही।

आम आदमी को तो सबसे पहले भोजन की चिंता होगी और इसके बाद वह कपड़े और मकान की सोचेगा। इसलिए जरूरी है कि बजट में निम्न और मध्यवर्ग के अलावा किसानों को ज्यादा राहत दी जाए। कोई एसी नीति बने कि महंगाई सिर न उठा सके। इसके लिए जरूरी है मुनाफाखोरों और बिचौलियों पर शिकंजा कसा जाए। उपभोक्ता हित में कानून तो बने हैं पर इनका पालन भी पूरी ईमानदारी से हो। बैंकिग सिस्टम को और मजबूत किया जाए। बजट में कई बार आम आदमी के लिए योजनाएं लाई जाती हैं, लेकिन देखना यह भी होगा कि इसका पालन ईमानदारी से हो। इन योजनाओं की नियमित समीक्षा हो और जवाबदेही तय की जाए। योजनाएं फूल नहीं, गेहूं को ध्यान रख बनाई जाएं। यानी गरीबों का ध्यान पहले रखा जाए। भूख मिटाने के इंतजाम करने होंगे। मुफ्तखोर बनाने के बजाय हर हाथ को काम दिया जाए। आंकड़ों की बाजीगरी के बजाय ठोस धरातल पर काम किया जाए। यह काम दिखना भी चाहिए। अब आयुष्मान योजना को देखिये, बड़े पैमाने पर गड़बड़ी की खबरें आ रही हैं। सरकार की नीयत साफ है तो गड़बड़ी किस स्तर पर हो रही है। देखना ही होगा, वरना आम आदमी तो तकलीफ में ही रहेगा।

इस बार का बजट वित्त मंत्री सीतारमण के लिए ही नहीं, सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। अब 1 फरवरी को पता लगेगा कि कितना कौशल दिखता है बजट में। बजट के पहले स्वादिष्ट हलुआ का स्वाद वित्त मंत्रालय ने ले लिया और अब समूचे देश को इसकी मिठास का इंतजार है। कुल मिलाकर आम आदमी, छोटे कारोबारी, छोटे उद्ममी और किसानों को राहत मिलनी चाहिये। पर्यटन सरकार की प्राथमिकता पर है, लेकिन इसमें अभी बहुत काम करने की जरूरत है। शिक्षा और स्वास्थ्य पर फोसक बेहद जरूरी है। आम आदमी को राहत मिलती है तो बजट की जय-जय। उसे सीएए और एनसीआर से क्या….।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं…।