सिसकती सांसों की सुनिए सरकार

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शैलेश अवस्थी

निशंक न्यूज

मैं सांस हूं। किसी की देह की आस हूं। या यूं कहें कि जीवन की उम्मीद हूं, जान हूं, जहान हूं। मैं प्रकृति की मस्त आबोहवा से भरपूर ऊर्जा ग्रहण कर न जाने कितनी कायाओं की क्रियाकलापों में शक्ति भरती हूं। इसी ताकत के बूते जीवन चलता है, जिसे परमपिता परमात्मा ने रचा है। उस चित्रकार की सुंदर कल्पना का चमत्कार इस प्रकृति का एक तत्व आज बेहद दुखी है और वह है वायु। इसी के जरिए मैं प्राणवायु बनती हूं।

हां, इसमें दोष उनका भी है, जो प्रकृति के रचयिता के ही रचे हैं। आबादी के बीच या आसपास धड़ल्ले से धुंआ उगल रहे न जाने कितने कारखाने आबोहवा में बदनुमा दाग लगा रहे हैं। शहरों से निकलने वाला टनों कचरा, जिसे सरेआम और सरेराह आग हवाले कर दिया जाता है और फिर उससे निकला जहरीला गुबार मुझमें में समाने लगता है। अकेले कानपुर शहर से कोई दो हजार टन कचरा रोज निकलता है, जिसे नष्ट करने के मुकम्मल इंतजाम नहीं हैं। लाखों वाहनों से निकलता पेट्रोल-डीजल का गरल मुझे धुआं-धुआं कर रहा है। खेतों से अपने हिस्से अन्नदाना चुनकर बचे अवशेष (पराली) जला कर उनका भी जहर मेरी भागीदारी के लिए छोड़ा जा रहा है। विकास की अंधी दौड़ में बेतरतीब और असुरक्षित निर्माण का काम भी अक्सर फिजाओं में विषतत्व घोल रहा है। इन सबके जिम्मेदारों ने इस कदर आंखें मूंद ली हैं कि उन्हें यह भी चिंता नहीं कि यह प्रदूषण न जाने कितनी आंखें सदा के लिए बंद कर रहा है।

सच कहूं तो मैं बेहद बेचैन दूं, विचलित हूं, दुखी हूं और चिंतित भी। सुबह की सैर पर निकलने वालों को हवा के ताजे झोंके मेरे जरिए ताजगी, खुशी, खूश्बू और भरपूर ऑक्सीजन देते हैं, लेकिन अब वे हवा हो रहे हैं। मुझमें घुले जहरीले कण उन्हें व्यथित कर रहे हैं। वे हैरान और परेशान हैं कि जिंदगी देने वाला मलय पवन दूषित होकर उन्हें अकाल मौत की तरफ क्यों धकेल रहा है। अब तो प्रदूषण का दैत्य मुझ पर सवार होकर घरों के भीतर तक पहुंच रहा है। दम घुट रहा है, यह प्रदूषण मुझ पर इस कदर भारी है कि मैं बेबस हो रही हूं।

ऐसा नहीं कि यह सब हुक्मरानों को पता नहीं। वे सब देख रहे हैं, लेकिन यह वायुविष शायद उनके आलीशान शयनकक्षों तक नहीं पहुंच रहा हैं। या यूं कहिए उन्हें अंदर आने से रोकने के उनके पास महंगे पर्याप्त साधन हैं। गैस चैंबर में तब्दील हो रहे कानपुर, दिल्ली, गाजियाबाद, गुरुग्राम (हरियाणा), कटनी, मुजफ्फरपुर, पटना, गांधीनगर, ग्रेटर नोएडा, लखनऊ और वाराणसी छटपटा रहे हैं। कानपुर तो खतरे का निशान पार चुका है। इतने खराब हालात तो तब भी नहीं थे, जब कानपुर एशिया का मैनचेस्टर हुआ करता था। न जाने कितने उद्योग-धंधे चलते थे। गंगा किनारे के कई शहर भी चपेट में हैं। क्या अब यह वक्त नहीं कि गरीबी की तरह प्रदूषण भी जंग लड़ी जाए ? किसी भी राजनीतिक दल, समाज और समुदाय के लिए यह मुद्दा प्राथमिकता पर नहीं होना चाहिये ? याद दिला दें कि कोई 15 साल पहले चीन में भी हालात भयावह थे। तब वह सचेत हुआ और कई सख्त नियम बना डाले। नागरिक भी जागरूक हुए और फिजाओं को महकाने के लिए जुट पड़े। इसका नतीजा हुआ कि किसी हद तक राहत मिली।

…तो अब केंद्र और राज्य सरकारों को भी चेतना होगा। राजनीति तो फिर कभी कर लीजियेगा, फिर कभी झगड़े कर लीजियेगा, लेकिन यह समय है जीवन बचाने का। आंकड़ों को इकट्ठा कर उन्हें कंप्यूटरों के भीतर कैद करने के बयाज नतीजों पर मंथन कर तुरंत प्रदूषण रूप में मस्ती से विचरण कर रहे इस राक्षस को मारने की निर्णायक कार्ययोजना बनाइये। हर वो कदम उठाए जाएं जिनसे हवा में जहर को खत्म किया जाए। प्रकृति के कातिलों की पहचान कर उन्हें सजा दी जाए। यह सत्ता का धर्म है और इसे उसे पालन करना ही होगा, वरना इसका अंजाम इतना खतरनाक होगा कि जीवन का अस्तित्व बचाना ही मुशिकल हो जाएगा। यह मेरी गुहार के साथ चेतावनी भी है।

एक नजर प्रदूषण पर (एक्यूआई)

कानपुर 307, मुजफ्फरपुर 315, पटना 309, गांधीनगर 124, गाजियाबाद 218, ग्रेटर नोएडा 202, गुरुग्राम 136, लखनऊ 256, वाराणसी 312, दिल्ली 215। 17 नवंबर को कानपुर का एक्यूआई देश में सबसे ज्यादा 418 था। कानपुर रेड जोन में आ गया। एक्यूआई प्रदूषण मापने का पैमाना है।