दिल्ली विधानसभा चुनाव में सभी 70 सीटों पर लड़ेगी
खेल बनाने-बिगाड़ने में हो सकती है महत्वपूर्ण भूमिका
शैलेश अवस्थी
ढलती सर्दी के बीच दिल्ली में राजनीतिक माहौल गर्माता जा रहा है। अब इसमें तप कर कौन सोना बनेगा और झुलसेगा, यह तो 11 फरवरी को नतीजे बताएंगे, लेकिन तीन प्रमुख दलों के बीच बसपा ने भी ताल ठोंक दी है। इस सियासी शतरंज के खेल में बसपा भले ही दौड़ में न माना जाए, पर इतना तो तय है कि उसे इग्नोर नहीं किया जा सकता।
बसपा ने तय किया है कि दिल्ली की सभी 70 सीटों पर वह अपने प्रत्याशी उतारेगी। पूरे दमखम से लड़ेगी। आंकड़ों पर गौर करें तो दिल्ली के चुनाव में 1993 से 2008 तक बसपा का वोट बैंक का खजाना बढ़ता ही गया। 1993 में 55 सीटों पर लड़कर लगभग 65 हजार वोट जुटाए। 2003 में 40 सीटों पर प्रत्याशी उतारकर ढाई लाख वोट प्राप्त किए। 2008 में 70 सीटों पर मुकाबला किया और साढ़े आठ लाख वोट स्कोर किए। दो सीटों पर जीत भी मिली। 2013 में 69 सीटों पर उतरी और वोट घटकर आधे रह गए। एक बार फिर 2015 में सभी 70 सीटों पर लड़ी, लेकिन वोट मिले मात्र सवा लाख। अब इस बार फिर सभी 70 सीटों पर उतरी है।
दिल्ली में आठ-दस सीटों पर दलित वोटरों की संख्या अच्छी खासी है। यहां किसी भी दल के लिए बसपा मुसीबत ख़ड़ी कर सकती है। अन्य सीटों पर भी वह वोट कटवा साबित हो सकती है। आम आदमी पार्टी और भाजपा के बीच मुख्य मुकाबला माना जा रहा है। कांग्रेस ने भी पूरी ताकत झोंकने की रणनीति बनाई है। ज्यादातर सीटों पर मुकाबला त्रिकोणात्मक हो सकता है। आम आदमी पार्टी ने पिछले एक साल से अपनी रणनीति बिल्कुल बदल दी है। विकास पर पूरा फोकस किया है। शिक्षा, स्वास्थ्य और स्थानीय परिवहन की सुविधाएं बेहतर हुई हैं और यही कारण है कि केजरीवाल उपलब्धि का पिटारा लेकर घूम रहे हैं। एक सीमा तक बिजली बिल माफ करना और महिलाओं के लिए बसों में मुफ्त यात्रा की सुविधा भी आम आदमी पार्टी के लिए वोट बैंक बन सकती है। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद केजरीवाल दिल्ली वालों के बीच ही रहे।
केजरीवाल समर्थक बता रहे हैं कि केंद्र सरकार पांच साल तक दिल्ली सरकार को परेशान करती रही। केजरीवाल के दफ्तर तक पर छापा डाला गया, लेकिन इस सबके बीच उन्होंने काम करके दिखा दिया। उन पर भ्रष्टाचार का कोई आरोप साबित नहीं हुआ। शीला दीक्षित के बाद यदि किसी मुख्यमंत्री ने काम किया है तो वह अरविंद केजरीवाल हैं। दूसरी तरफ भाजपा यह बताने की कोशिश कर रही है कि केजरीवाल ने कुछ नहीं किया। यह तो नरेंद्र मोदी की इच्छा शक्ति है, जो उन्होंने दिल्ली की कालोनियों को नियमित करके वहां के लाखों निवासियों को मकान मालिक बना दिया।
कांग्रेस तो बिखरी नजर आती है। गौर करें तो पता लगता है कि पिछले पांच साल के दौरान कांग्रेस ने दिल्ली पर फोकस ही नहीं किया। शीला दीक्षित के निधन के बाद तो कांग्रेस के पास कोई एसा चेहरा ही नहीं है, जिसे आगे करके वह चुनाव लड़े। दिल्ली का चुनाव छोटा जरूर है, लेकिन राजनीति में इसकी अहमियत बहुत बड़ी है। यही कारण है कि भाजपा ने आक्रमक रणनीति बनाई है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह सहित हर बड़ा नेता दिल्ली के चुनाव में प्रचार करता नजर आएगा। अमित शाह ने तो आज से शुरूआत भी कर दी है। इसी तरह कांग्रेस की ओर से सोनिया गांधी, राहुल, प्रियंका सहित सभी बड़े नेता चुनाव प्रचार के लिए सूची में हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं…।