सरयू ने “डुबोई” रघुबर की “नइया”

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झारखंड चुनाव नतीजों ने भाजपा को दिया झटका

सिमटती ताकत पर मंथन करना होगा, बड़ी चुनौती

शैलेश अवस्थी

झारखंड चुनाव नतीजों ने जता दिया कि जनता से जुड़े मुद्दे और अपनी पार्टी कार्यकर्ताओं की आवाज अनसुना करने का क्या परिणाम होता है। अजेय महारथी कहे जाने वाले रघुबर दास जिस तरह धड़ाम हुए, वैसा शायद न तो उन्होंने सोचा होगा और न ही पार्टी ने। वह तो डूबे ही, साथ ही झारखंड में भाजपा को भी इस तरह ले डूबे कि फिलहाल नहीं लगता कि उसे किनारा नसीब होगा।

इसमें कोई संदेह नहीं कि रघुबर दास ने झारखंड में पार्टी की जड़ों को सींचा और इस तरह मजबूत किया कि वह सूबे पहले एसे मुख्यमंत्री रहे, जिसने पांच साल का पूरा कार्यकाल पूरा किया। तो फिर चूक कहां हो गई ? क्या उनके साथ आलाकमान को भी कार्यकर्ताओं की नाराजगी की भनक नहीं थी या फिर किसी ने इसकी चिंता नहीं की ? क्या रघुबर दास ने अपने आकाओं को यह बताकर निश्चिंत कर दिया था कि वह सब मैनेज कर लेंगे ? सवाल यह भी है कि क्या उन्हें इस कदर आत्मविश्वास था कि वह अपनी साख के बूते चुनावी नइया पार लगा देंगे ?

क्या रघुबर दास सरयू राय जैसे कद्दावर और झारखंड में पैठ रखने वाले नेता का आकलन करने में चूक गए ? इसका जवाब शायद हां ही होगा। नतीजे बता रहे हैं कि खुद मुख्यमंत्री रघुबर दास ही चुनावी मैदान में खेत रहे। बागी सरयू राय ने उन्हें न घर का छोड़ा न घाट का। रघुबर दास ही नहीं, उनके कितने मंत्री और विधायक भी हार गए। जिनके टिकट कटे, उनकी मनुहार नहीं की गई और वह भी सरयू की चुनावी नैया के पतवार बन गए। सरयू राय को नेता समझा नहीं सके और वह निर्दलीय के रूप में उतर पड़े। बगावती तेवरों ने भाजपा के अधिकृत प्रत्याशियों की महात्वाकांक्षाओं को झुलसा कर रख दिया। सहयोगी दलों से गठबंधन न करने के पीछे शायद भाजपा की सोच थी कि वह अपने दम पर मैदान मार लेगी, पर एसा हो न सका।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने झारखंड में कई चुनावी सभाएं कीं। पार्टी के कई दिग्गज वहां डेरा डाले रहे और कई नेताओं ने रैलियां कीं। इस बीच राम मंदिर का फैसला भी आया और नागरिकता संशोधन विधेयक पर मुहर भी लग गई। पूरे देश में नागरिकता संशोधन विधेयक को भाजपा के विरोधी दलों ने मुद्दा बना दिया। भाजपा को लगा कि झारखंड में उसे इस बिल से फायदा मिल सकता है। जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाना, राम मंदिर और नागरिकता संशोधन विधेयक की भाजपा ने झारखंड की रैलियों में खूब चर्चा की, लेकिन परिणाम बताते हैं कि इसका कोई असर नहीं दिखा।

दूसरी तरफ झारखंड मुक्ति मोरचा के प्रमुख हेमंत सोरेन लगातार स्थानीय मुद्दों पर अपना चुनावी रथ आगे बढ़ाते रहे। वह भाजपा को इन्हीं मुद्दों पर घेरते रहे। उसकी सहयोगी कांग्रेस और आरजेडी ने भी यही किया। ये गठबंधन गांव-गांव और घर-घर स्थानीय समस्याओं को लेकर चर्चा करता रहा। आदिवासियों के बीच शीबू सोरेने और हेमंत सोरेन की पकड़ से भाजपा अवगत थी, पर चिंता नहीं की। उनका मुखबिर तंत्र या तो फेल रहा या फिर उन्होंने उसको तवज्जो नहीं दी।

जब पूरे देश में विपक्ष केंद्र सरकार को सीएए और एनआरसी के मुद्दे पर घेर रहा है, तब झारखंड भी भाजपा के हाथ से खिसकना बड़ी राजनीतिक घटना जरूर कही जाएगी। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है, जब भाजपा के हाथ आई महाराष्ट्र की बाजी भी पलट गई। इसके पहले हरियाणा में भी झटका लग चुका है, जब उसे सरकार बनाने के लिए बैशाखी का सहारा लेना पड़ा। गुजरात में भी सीटें कम हो गई थीं। कर्नाटक में किसी तरह सम्मान मिल गया। देखा जाए तो महाराष्ट्र में भाजपा डैमेज हुई, हरियाणा में डेंट लगा और झारखंड में तो डिलीट ही हो गई।

झारखंड में कुल 81 सीटों वाली विधासनभा में “झारखंड मुक्ति मोर्चा” 30 सीटें पाकर बड़ी ताकत के रूप में उभरा है। कांग्रेस ने 16 सीटें प्राप्त कर बढ़त बनाई और आरजेडी एक सीट पाकर सरकार का हिस्सा बन गई। भाजपा मात्र 25 सीटों पर सिमट गई। एक के बाद एक राज्यों का भाजपा से छिटकना, उसके लिए खतरे की घंटी जरूर है। अब नए सिरे से विचार करके रणनीति तय करनी होगी, जनता का मूड भांपना होगा, उसकी तकलीफों और दिक्कतों को और ज्यादा करीब जाकर महसूस करना होगा। देश के आर्थिक हालात, महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी और बुनियादी सुविधाओं पर ज्यादा फोकस करना होगा। यह सही है कि देश को मजबूत करने के लिए कठोर कदम उठाने जरूरी हैं, लेकिन भूख से बड़ा मुद्दा कोई नहीं हो सकता। धाकड़ समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया ने एक बार तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर तंज कसते हुए कहा था कि “वह योजना बनाते हैं गुलाब की, अरे इस देश की जनता को चाहिए गेहूं।“ लोहिया के इस तंज की गहराई और मंशा को समझना होगा। विपक्ष को भी चाहिए कि इस जीत से वह जनता की भावनाओं को समझे। धरातल पर काम करे, अपनी ऊर्जा बयानबाजी में खर्च करने के बजाय जनता के बीच रहकर उसके दर्द को करीब से महसूस करे, वरना बाजी पलटते भी देर नहीं लगती। अगले साल दिल्ली और बिहार के चुनाव भाजपा के साथ विपक्ष के लिए भी बड़ी चुनौती हैं। यह भारत के लोकतंत्र की खूबसूरती ही है कि जनता ही सर्वोपरि है, इसलिए समझदार राजनीतिज्ञ उसके ताप को बखूबी समझते हैं। वह सिरआंखों पर बैठाती है तो इतिहास के कूड़ेदान में फेंकना भी जानती है और एसा पिछले 72 साल में कई बार हो चुका है। –लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।