सज्जनता, सदाचार, सादगी, ईमानदारी की मिसाल विशारद जी नहीं रहे
सात बार विधायक, कई पद, रसूख का ऊंचा कद और अपना एक मकान तक नहीं
शैलेश अवस्थी
99 साल के भगवती सिंह विशारद ने कल जब अंतिम सांस ली और जब मैने उनके ‘सेवा जीवन’ पर विस्तार से नजर डाली, तब मन में सवाल उठा कि क्या विधाता ने एसे नस्ल के नेताओं का धरती पर “अवतार” बंद कर दिया है। जरा सोचिये, सात बार विधायक, न जाने कितने पद, लोकप्रियता की हद, ईमानदारी का ऊंचा कद, लेकिन न तो खुद का घर और न ही कोई विलासिता की वस्तु।
भगवती सिंह विशारद का जन्म उन्नाव के झगरपुर गांव में 30 सितंबर 1921 को हुआ था। पांचवीं तक पढ़ाई के बाद वह कानपुर के धनकुट्टी मोहल्ले में अपने पिता के पास आ गए। उनके पिता एक अंगरेज अफसर के पास मजदूरी करते थे। एक दिन उस अफसर ने उन्हें जूतों पर पालिश करने को कहा, पर उन्होंने इनकार कर दिया। तब उन्हें पेड़ से बांध कर पीटा गया और यहीं से भगवती सिंह की जिंदगी में मोड़ आया। वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और अंगरेज हुकूमत की हर रणनीति की सूचना स्वतंत्रता सेनानियों तक पहुंचाने लगे। जीवन यापन के लिए उन्होंने कपड़ा बाजार में नौकरी की और इस बीच वह फुटपाथ पर पढ़ते भी रहे।
देश आजाद हुआ, लेकिन विशारद जी के मन में था कि अभी तो गरीबी और कुरीतियों से आजादी भी जरूरी है। वह समाज सेवा की ओर मुड़ गए। राजनीतिक दलों की नजर उन पर पड़ी और उन्हें ससम्मान आमंत्रण दिया। 1957 और 1967 में प्रजातांत्रिक सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर विधायक बने। इसके बाद 1969, 1974, 1980, 1985 और 1991 में कांग्रेस टिकट पर विधायक बने। विशारद ने टिकट के लिए कभी दिल्ली और लखनऊ दरबार में हाजिरी नहीं दी। उनका टिकट खुद चलकर आता था और नामांकन के बाद पूरा चुनाव इलाके की जनता लड़ती थी और विशारद जी को भारी बहुमत से जिताकर विधानसभा भेज देती थी। वहां वह जनहित के लिए इस कदर पैरवी करते थे कि सरकार उनकी बात को अनसुनी नहीं कर सकती थी। वह अपनी शर्तों पर राजनीति में थे। कई बार पार्टी लाइन से अलग खड़े हो जाते थे। विशारद जी को टिकट देने पर हाईकमान कभी जाति और धर्म के समीकरण नहीं विचारता था। उसे पता था कि विशारद जी इन सबसे उठकर हैं। क्या आज के राजनेता विशारद जी से कुछ सीख सकते हैं…?
मेरा मानना है कि जन्म से ज्यादा इंसान की मृत्यु माने रखती है। यदि कोई अपने जीवन में कुछ आदर्श और मापदंड स्थापित करता है और मृत्यु के बाद उसकी राह पर जमाना चलता है तो मान लीजिये, जिंदगी सार्थक हो गई। मृत्यु के बाद भी उनकी देह जन्म-मृत्यु के गूढ़ रहस्य समझने, चिकित्सा पद्धति सरल बनाने के काम आएगी, क्योंकि उन्होंने “देह दान” की इच्छा जताई थी। आज उनका पार्थिव शरीर जीएसवीएम मेडिकल कालेज को सौंप दिया गया। कल विशारद जी के पार्थिव शरीर के सामने न जाने कितने नेता उनकी सच्चाई, सादगी, ईमानदारी, सेवा और समझदारी के किस्से लोककथाओं की तरह सुना रहे थे। एक पूर्व विधायक ने बताया कि विशारद जी हमेशा बस, रिक्शा और पैदल ही चलते थे। रोडवेज बस में यदि कोई विधायक की आरक्षित सीट पर बैठा दिखा तो उसे कभी उठाया नहीं, वहीं खड़े रहे और उसके उतरने के बाद सीट पर बैठे।
विशारद जी हमेशा थैला साथ लेकर चलते थे। उसमें उनकी धोती-कुर्ता, लेटरपैड और मुहर रहती थी। राह चलते किसी ने समस्या बताई तो तत्काल संबंधित अधिकारी को चिट्ठी लिखकर दे दी। विशारद जी का लखनऊ ही नहीं दिल्ली दरबार तक रसूख एसा था कि किसी मंत्री की क्या मजाल कि उनकी चिट्ठी को तवज्जो न दे। न जाने कितने “धनकुबेर” उनके पास हाथ जोड़े खड़े रहते थे जो उनकी एक आवाज पर हर “सुविधा” मुहैया कराने को तत्पर रहते, लेकिन विशारद जी कभी किसी से “उपकृत” नहीं हुए। यही कारण है कि वह अंतिम सांस तक उस किराए के मकान में रहे जहां उनके पिता ने 80 साल पहले अपना ठिकाना बनाया था।
विशारद जी ने कभी ईमानदारी का डंका नहीं पीटा। उन्हें न तो सुर्खियों से मतलब रहा और न ही चकाचौंध भरी मायावी दुनिया से। बस, अपने धर्म और कर्म की चिंता। जनता से किए वादे को न पूरा कर पाने को पाप समझते थे। किसी की पीड़ा को खुद का दर्द समझते थे। विनम्रता, सज्जनता, सहजता और समानता के गुणों के चलते उन्नाव में वह “गांधी” कहे जाते थे। उनकी मृत्यु से हर वह शख्श दुखी है, जिसे ईमानदारी, सच्चाई और सादगी पर भरोसा है।
विशारद जी जैसे नेता अब गुजरे जमाने की बात है। किसी के भी मन में यह सवाल सहज ही उठता है कि क्या ऊपर वाले एसे नेताओं की नस्ल ही धरती पर उतारना बंद कर दिया है ? कहां दिखते हैं अब एसे नेता ? विधायक तो छोड़िये, सत्ताधारी किसी दल का एक अदना से नेता भी कार से नीचे पैर नहीं धरता, ब्रांडेड वस्त्र न पहने तो लगता है कि उसकी इज्जत ही न हो। राजनीति की दुनिया में “रंगबाजी” न हो तो यूं मसहूस होता कि नेता कुल में जन्म ही क्यों लिया ? अब तो नेताओं की चर्चा उनके आचरण से नहीं, उनकी साज-सज्जा, महंगी गाड़ियों, महंगे आशियानों, अकूत दौलत और धमक के लिए होती है। मैं नहीं कहता कि अब सभी राजनेता स्वार्थ पर ही क्रेंद्रित हैं, परमार्थ पर नहीं। लेकिन जब भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन जाए और जनसेवा तो सिर्फ किताबी ज्ञान, तो सवाल उठता ही है। वक्त के साथ चीजें बदलती हैं, लेकिन सेवा का कभी कोई विकल्प हो सकता है क्या ? आज के नेता अपनी “भौकाली” दिनचर्या से थोड़ा वक्त निकालकर इस बिंदु पर भी थोड़ा सोच सकते हैं क्या ? हे राजनेताओं.. जरा जनता के वोटों के कर्ज और उनके प्रति अपने फर्ज पर भी गौर फरमाइये। विशारद जी को नमन, भावभीनी श्रद्धांजलि….।