नफ़रत और प्यार

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प्यार बांटने निकले हैं हम नफ़रत के बाजारों में।
थमा रहे हैं तेज कटारी हत्यारों के हाथों में।।
47 के घाव अभी तक दिल पर दस्तक देते हैं ;
लाशों के वह ढेर न हमको पल भर सोने देते हैं।
कुत्ते नोंच रहे थे लाशें गलियों और बाजारों में ;
मानवता भी चीख रही थी संसद के गलियारों में।
काश्मीर से कलकत्ता तक लाशों का अंबार लगा ;
हाथ तापने निकले खुद ही इस धरती को आग लगा।
भारत मां को खंडित कर अब छुपते हैं इतिहासों में।
प्यार बांटने निकले हैं हम नफ़रत के बाजारों मे ।।
25 जून 75 को वह काला दिवस भी आया था
न्याय पालिका ने हिम्मत कर हमको सबक सिखाया था।
आपातकाल लगा कर‌ हमने लोकतंत्र को कुचल दिया;
पत्रकारिता को हमने अपने पांव तले तब मसला दिया।
जेल बना डाली थीं गलियां हमने हिंदुस्तान की;
पंंगु बना डाली थी हमने धरती हिंदुस्तान की।
आज उसी को पुनः जोडने निकले बीच सवालों में।
प्यार बांटने निकले हैं हम नफ़रत के बाजारों में।
जलते देखी हमने नैना होटल के तंंदूरो पर;
आग उगलते देखी तोपें स्वर्ण मंदिर के सीने पर।
हमें बताओ भिंडरवाला किसने संत बनाया था;
खालिस्तान बनाने का क्यों, किसने स्वप्न सजाया था।
लाल हुई थी वह धरती जो फसलें बहुत उगाती थी ;
हर बस्ती ही लाशें गिन-गिन अपनी रात बिताती थी।
हाथ तापने फिर से निकले हम मंदिर, गुरुद्वारों में।
प्यार बांटने निकले हैं हम नफ़रत के बाजारों में।।
84 में सिखों पर भी हमने प्यार जताया था;
डाल गले में जलते टायर तांडव नया दिखाया था।
कितने बेघर किए, मिटाया कितनों का सिंदूर;
केश काटकर खुद ही कितने हुए पंथ से दूर।
सुलगा था पंजाब , दहकती दिल्ली हमने देखी थी ;
सड़कों पर तब मौत नाचती इस दुनियां ने देखी थी।
बांट दिए थे हमने खंजर तब गुंडे, हत्यारों में।
प्यार बांटने निकले हैं हम नफ़रत के बाजारों में।।
भेज शांति सेना अपनों का था तब हमने संहार किया ;
अपनों की लाशें चुन चुन कर लंका पर उपकार किया।
टुकडे टुकड़े गैंग को हमने अपना अंग बनाया है;
पाकिस्तान -चीन को हमने अपना मित्र बनाया है ।
झूठ बोलकर, भ्रम फैलाकर राजनीति हम करते हैं ;
हम गांधी हैं भरी धरा पर नहीं किसी से डरते हैं।
हमने अपना प्यार लुटाया कुछ झूठे, गद्दारों में।
प्यार बांटने निकले हैं हम नफ़रत के बाजारों में।।
नहीं बने श्रीराम का मंदिर कोशिश यही हमारी थी;
न्यायालय के द्वार-द्वार पर पैनी नज़र हमारी थी।
रामसेतु के अस्तित्व को हमने ही इन्कारा था;
राम महज़ हैं एक कल्पना मंचों पर ललकारा था।
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई कितने खेमे बांट दिए;
जातिवाद के नाम पर हमने सारे भाई बांट दिए।
पहन जनेऊ जब भी निकलें रहते सदा नज़ारों में।
प्यार बांटने निकले हैं हम नफ़रत के बाजारों में।।
इसी प्यार में निकल गया बंगाल हमारे हाथों से;
इसी प्यार में छूट गया पंजाब हमारे हाथों से।
इसी प्यार की खातिर ही हम दिल्ली में गुमनाम हुए ;
इसी प्यार को लुटालुटाकर यूपी में बदनाम हुए।
इसी प्यार में गई अमेठी, महाराष्ट्र भी छूट गया;
इसी प्यार में मध्यप्रदेश और गोवा हमसे रूठ गया।
फिर से इन्हें खोजने निकले हम गलियों, बाजारों में।
प्यार बांटने निकले हैं हम नफ़रत के बाजारों में।।
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✍️ डॉ० मुकेश कुमार सिंह