देख तमाशा सियासत का

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  • महाराष्ट्र में सत्ता संघर्ष के बीच फंसी जनता

शैलेश अवस्थी

अयोध्या के राजा दशरथ ने उस दिन अपने उस पुत्र राम को अचानक बुलाया, जिसके राज्याभिषेक के लिए नगरी सजधज रही थी। उत्सव के माहौल के बीच जब राम पिता के पास पहुंचे। दशरथ ने आज्ञा दी कि अब तुन्हें 14 वर्ष के लिए वन जाना है। राम ने एक क्षण भी नहीं सोचा, न ही कोई तर्क किया और मुस्कुरा कर सीता से कहा कि चलो, मेरे वनगमन की तैयारी करो। वहां बहुत से काम मेरी प्रतीक्षा कर रहे हंो और चल दिए। वन गए तो बन गए। अब जरा गौर कीजिये इस युग में फिर से रामराज का राग गाने वाले वाले राजनीतिज्ञों के चाल, चरित्र, चेहरे और चिंतन पर। महाराष्ट्र की राजनीति में इनदिनों कौतूहल है, रहस्य है और इंतजार भी। नहीं तो सिर्फ पारदर्शिता और सच्चाई।
चुनाव के दौरान जनता को सिरआंखों पर बैठाकर वोटों के लिए गिड़गिड़ाने वाले नेताओं को क्या अब जनादेश की चिंता है ? महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना ने साथ चुनाव लड़ा। मुद्दे, वादे, इरादे, नीति और रीत लगभग एक ही थी। 288 सीटों वाली इस विधानसभा में 105 भाजपा और 56 शिवसेना ने जीतीं। तब इनकी धुरविरोधी पार्टी एनसीपी ने 54 और कांग्रेस ने 44 सीटें अपने नाम कीं। बाकी सीटें अन्य और निर्दलियों के खाते में गई। अब नंबर के हिसाब से भाजपा और शिवसेना को मिलाकर इनके पास 161 सीटें हैं। यानी बहुमत से भी 16 सीटें ज्यादा। जाहिर है सरकार बनाने में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। ऊंची कुरसी के लिए भाजपा और शिवसेना की 30 साल पुरानी दोस्ती टूटने के बाद अब किसी कोने में बैठी एनसीपी और कांग्रेस की आंखों में चमक है। सत्ता के ख्वाब देख रही हैं और इसके लिए अपनी नीति-रीति छोड़ नंबर-गेम बनाने में जुटी हैं। जोड़-घटाना कर सत्ता हासिल में जुटी हैं।
नतीजे आए और जीत के जश्न के बीच ही मुख्यमंत्री और दमदार मंत्रीपदों के लिए शिवसेना का जिया बेकरार हो गया। उधर, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जीत उत्सव के लिए आयोजित समारोह में फरणवीस की तारीफ कर उन्हें मुख्यमंत्री के लिए योग्य बता दिया। शिवसेना का दर्द बढ़ गया। शिवसेना प्रमुख उद्वव ठाकरे ने 50-50 फार्मूले की बात उछाल दी। कहा कि बालासाहब की इच्छा थी कि कभी शिवसेना का मुख्यमंत्री बने और अब वह घड़ी आ गई है। भाजपा वादे से मुकर रही है। उधर, फरणवीस ने एसे किसी फार्मूले का खंडन किया। बस इसके बाद आगबबूला शिवसेना ने एनडीए से नाता लगभग तोड़ लिया और कभी दुश्मन रही एनसीपी और कांग्रेस की तरफ हाथ बढ़ा दिया।
राजनीतिक चौसर बिछ गई। जिस कांग्रेस को कोई पूछ नहीं रहा था, उसकी पूछ अचानक बढ़ गई। सियासत की इस महाभारत में भी तब के कुछ पात्र जैसे दिमाग वाले सक्रिय हैं। मोह में किसी की आंख में पट्टी बंधी है तो कोई कुरसी पर बैठने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का इस्तेमाल करने से नहीं चूक रहा। हर किसी की चाहत है मुख्यमंत्री और मलाईदार ओहदे। अभी चुनाव के दौरान के दौरान ही एक दूसरे को कोसने वाले आज सत्ता के लिए साथ आने के लिए बेताब दिखते हैं। मेल-मुलाकातें हो रही हैं। शरद पवार सोनिया गांधी और उद्धव ठाकरे से मिल रहे हैं। हर दल अपनी नापतोल रहा है। कांग्रेस सोच रही है कि मुसलमान न रूठ जाएं, एनसीपी को भय कि साथी न छूट जाएं, शिवसेना को डर है कि मौका न निकल जाए, भाजपा को चिंता है कि साथी न टूट जाएं। चिंता वजूद की है, पर सत्ता का मोह भी नहीं छूट रहा। इस बीच जनता ठगी सी सत्ता मोह का नजारा दुखी मन से देख रही है।
यानी रामराज की बात करने वाले राम को क्या अपनी सुविधानुसार इस्तेमाल नहीं कर रहे ? क्या सत्ता से बाहर रहकर जनता की सेवा नहीं हो सकती ? क्या विपक्ष में बैठकर लोकतंत्र को मजबूती नहीं दी जा सकती ? क्या किसी की जिद जनादेश के सम्मान से बड़ी है ? क्या जनहित इसी तरह स्वार्थ के लिए बलि चढ़ा दिया जाएगा ? चुनाव के दौरान मतदाताओं की चौखट पर माथा टेकने वाले अब उनके सपनों को रौंद नहीं रहे ? खिचड़ी सरकार बन भी गई तो क्या सभी भागीदारों को पांच साल तक संतुष्ट रखा जा सकेगा ? दिक्कतों में फंसे किसान, मजदूर और बेरोजगारों का क्या भला हो सकेगा ? अब महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन है, लेकिन सत्ता के लिए ललक रहे नेता गोटियां सेट करने में जुटे हैं। कवि गोपालदास नीरज ने शायद सही लिखा है-“राजनीति है उद्योग, इसको भोग।“