वह कभी समझाते, कभी चौंकाते तो कभी आंखें दिखाते हैं
उनका होमवर्क विपक्ष की तैयारी पर भारी, यही है यूएसपी
शैलेश अवस्थी
संसद के दोनों सदनों में “नागरिकता संशोधन विधेयक” पर मुहर लगने के बाद एक बार फिर गृहमंत्री अमित शाह ने अपने राजनीतिक हुनर का लोहा मनवा लिया है। सरदार पटेल के बाद शायद अमित शाह दूसरे गृहमंत्री हैं, जो पूरी दुनियां के लिए हर दिन सुर्खियां बने हैं। वह कभी चौंकाते हैं, कभी समझाते हैं तो कभी आक्रमक हो जाते हैं। एजेंडा बिल्कुल स्पष्ट और उस पर डटे रहना। फितरत में जिद, जुनून और जूझारूपन। हर बिंदु पर पूरी तैयारी और क्लीयरिटी। यही उनकी यूएसपी है।
अमित शाह को देश ने कांग्रेस की कृपा से सबसे पहले कोई 16-17 पहले जाना, जब गोधराकांड हुआ, पर वह उससे पूरी तरह बरी हो चुके हैं। 2014 में भाजपा ने उन्हें लोकसभा चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाकर भेजा और इस धरती पर उनकी रणनीति ने पार्टी को इस तरह मजबूत किया, जिसके कारण नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने का रास्ता बिल्कुल साफ हो गया। इसके बाद वह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और एक के बाद एक कीर्तिमान गढ़ते गए। विजय पथ में आए हर रोड़े को कभी दिल तो कभी दिगाग से ठिकाने लगा दिया। वह अपने लक्ष्य को अंजाम दिए बिना चैन नहीं लेते। 2019 के चुनाव में शाह ने नारा दिया “300 पार” और यह साबित भी कर दिया।
मोदी 2.0 में गृहमंत्री बने अमित शाह थमने वाले कहां थे। अब उन्हें संसद में अपने को साबित करना था। वह पहली बार संसद पहुंचे थे, उनके सामने विपक्ष की जमाने के दिग्गज, धुरंधर और अनुभवी सांसदों की पूरी फौज थी, जो उन्हें घेरने को तैयार बैठी थी। इन सबके बीच पार्टी के घोषणापत्र पर किए वादे को पूरा करना बड़ी चुनौती थी। लेकिन जिस तरह से एक के बाद हर चुनौती को अवसर बनाते हुए जिद पर अड़े शाह ने जुनून से काम किया, वह कारीगरी और कौशल तो इतिहास के पन्नो में अंकित हो ही गया है।
तीन तलाक बिल के बाद, अनुच्छेद 370 हटाना और फिर अब नागरिक संशोधन विधेयक बिल संसद के दोनों सदनों में पास करवाने जैसा काम तो लगता है कि अमित शाह ही कर सकते हैं। इस बीच अयोध्या मसले का नतीजा भी भाजपा पर भगवान राम की कृपा ही कही जाएगी। नागरिकता संशोधन विधेयक पेश होने के बाद संसद के दोनों सदनों में अमित शाह ने जो तथ्य रखे, जो तर्क दिए और जो तरीका रहा, वह उनके आत्मविश्वास की शानदार झलक थी। कितनी दृढ़ता से उन्होंने हर एक सवाल का जवाब दिया और शंकाओं का निवारण किया। विपक्ष का मुख्य तर्क था कि यह बिल संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, भारत की परंपरा के खिलाफ है और यह मुसमानों को डरा रहा है। कांग्रेस ज्यादा मुखर दिखी। इसके जवाब में अमित शाह ने नेहरू-लियाकत समझौता, मनमोहन सिंह का बंग्लादेश के शरणार्थियों के पक्ष में पूर्व में दिया गया बयान और नागरिकता पर इंदिरा गांधी की नीति का जिक्र कर कांग्रेसियों की बोलती बंद कर दी। विपक्ष के सवाल तर्कसंगत हो सकते हैं, लोकतंत्र में उसकी राय और बात मायने रखती है, लेकिन इसमें कोई सवाल नहीं हो सकता कि शाह का जबरदस्त होमवर्क विपक्ष की तैयारी पर भारी पड़ा।
यह सही है कि लोकसभा में एनडीए का बहुमत है औऱ इसी दम पर वह नागरिकता संशोधन विधेयक एक झटके में पास करवा ले गई। लेकिन राज्यसभा में नबंर जुटाने के खेल में भी शाह बाजी मार गए। जरा गौर कीजिये, उस जमाने में तब के गृहमंत्री सरदार पटेल के रास्ते में कितने रोड़े रहे होंगे। उस वक्त तो एक से एक धुरंधर नेता थे। कई बार तो प्रधानमंत्री नेहरू भी उनसे सहमत नहीं होते थे। तब 548 रियासतों का भारत में विलय करवाने का काम कितना कठिन रहा होगा, लेकिन किस तरह अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति की बदौलत सरदार पटेल ने इसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया था। सोमनाथ मंदिर भी पटेल की दढ़ता का परिणाम रहा। देश के एजेंडे के लिए जितने व्यग्र पटेल थे, वह झलक अब शाह में भी दिखती है। क्या शाह के लिए ये जोखिमभरे कदम नहीं हैं, लेकिन यदि देशहित के लिए नीयत साफ है तो फिर डर को कुचलना ही होगा और एसा शायद अमित शाह ने कर दिखाया है। डरा हुआ नेता देश को सुरक्षित नहीं रख सकता। याद कीजिये इंदिरा गांधी ने अपनी जान दे दी, लेकिन देश के टुकड़े नहीं होने दिए। यह उनकी दृढ़ इच्छा शक्ति थी।
हम यहां किसी से किसी की तुलना नहीं कर रहे है। सिर्फ यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि राजनीति में कथनी को कर दिखाना, इच्छा शक्ति और जोखिम लेने के खत्म होते दौर में शाह और मोदी से कुछ उम्मीद जरूर की जा सकती है। यह अलग बात है कि वोट बैंक के लिए इस जोड़ी से अंदर से सहमत होते हुए, ऊपर से विरोध मुखर करना मजबूरी हो सकता है। जैसा कि विपक्ष कहता है कि यह भाजपा का राजनीतिक एजेंडा है, तो इस प्रयोग को कर के देखने में क्या बुराई है। हां, यदि कहीं गड़बड़ी दिखे और विपक्ष के सवाल हकीकत बयां कर रहे हों, तो संसद है न। लोकतंत्र में सवाल उठने चाहिए, ये बेहद जरूरी है, लेकिन संयम भी जरूरी है। हर बार जीत हाथ नहीं लगती। लेकिन जो चलेगा ही नहीं, लड़ेगा ही नहीं, जोखिम लेगा ही नहीं, उससे कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती। यहां हम बात सिर्फ अमित शाह और उनकी उपलब्धियों पर कर रहे हैं। इससे कोई असहमत भी हो सकता है, लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि संसद में शाह का जोरदार भाषण से विपक्षी शूरवीरों को मात देता जरूर दिखा।
सफलता के साथ शाह की चुनौतियां भी बढ़ी हैं। विधेयक को लेकर पूर्वोत्तर राज्य सुलग उठे हैं, एक समुदाय के मन में शंकाएं उठ रही हैं और यह स्वाभाविक है। एसे में जरूरी है कि कथनी के साथ करनी में भी प्रदर्शित किया जाए कि वे उनके अपने हैं, उन्हें डरने की जरूरत नहीं है। हांलाकि शाह ने संसद में स्पष्ट कर दिया कि इस विधेयक से किसी को डरने, घबराने की जरूरत नहीं है। हां, उन लाखों लोगों पर से शरणार्थी होने का ठप्पा भी मिट जाएगा, जो वर्षों से उन पर बदनुमे दाग की तरह चस्पा है।
-लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं….