बढ़ा सकते हैं लल्लू की मुसीबत, बिछ गई चौसर
आलाकमान नजर रख रहा है हालात पर, विचार
शैलेश अवस्थी
यूपी में हाशिए पर पड़ी कांग्रेस अभी भी अंतरकलह से उबर नहीं सकी है। ताजा घटनाक्रम पार्टी से छह साल के लिए बाहर किए गए 11 नेताओं से जुड़ा है। अब अपने जमाने के ये महारथी आरपार के मूड में हैं। सूत्र बताते हैं कि परदे के पीछे वे भी इनके साथ हैं, जिन्हें यूपी कांग्रेस की नई कमेटी में दमदार ओहदों से नहीं नवाजा गया है। निकाले गए नेताओं ने तय किया है कि वे अपनी बात से पीछे नहीं हटेंगे, इसे सोनिया गांधी तक पहुंचाएंगे। लेकिन इस मामले में हर नेता चुप्पी साधे है।
कांग्रेस ने कोई चार साल पहले राजबब्बर को यूपी कांग्रेस की बागडोर सौंपी थी और तय किया था कि संगठन को बेहद मजबूत कर फिर जनता के बीच पैठ बनाई जाएगी। लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उलट। राजबब्बर यदा-कदा ही लखनऊ आते, स्वागत करवाते, धरना-प्रदर्शन में हाजिरी लगाते और चले जाते। लखनऊ मुख्यालय में डटकर बैठना तो दूर ज्यादातर जिला कमेटियों का गठन तक नहीं कर सके। इस बीच लोकसभा चुनाव आ गया और प्रियंका गांधी को आननफानन महासचिव बनाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। मोदी की आंधी में यूपी कांग्रेस संगठन के जर्जर पिलर हिल गए और इसका खामियाजा किसी हद तक भुगतना पड़ा। हालत यह रही कि राहुल गांधी तक चुनाव हार गए। सोनिया गांधी को खुद की ही एक सीट से संतोष करना पड़ा। जिस ट्रंप कार्ड के रूप में प्रियंका गांधी को कांग्रेसी करिश्मा मान रहे थे, वह अपनी पहली परीक्षा में फेल हो चुकी थीं। इस कारण पार्टी हैरान और हताश थी।
कांग्रेस को डूबता जहाज मानकर कुछ नेताओं ने कूदकर भागने में ही अपनी राजनीतिक भलाई समझी। संजय सिंह ने कांग्रेस को एक बार फिर नमस्कार कर भाजपा की शान में सिर नवा दिया। रत्ना सिंह और अमिता मोदी ने भी किनारा कर लिया और इसके बाद तो पार्टी में हाहाकार मच गया। इधर रायबरेली से विधायक अदिति सिंह ने पिछले दिनों पार्टी विह्प के खिलाफ जाकर विधानसभा के विशेष दिन-रात सत्र में भाग ही नहीं लिया, बल्कि योगी सरकार की तारीफ भी कर डाली। सकते में आए कांग्रेस नेतृत्व ने उन्हें नोटिस थमाया पर इसके आगे क्या हुआ, नहीं पता। अम्मार रिजवी जैसे दमदार नेता भी कांग्रेस छोड़कर भाजपा के साथ चले गए।
यूपी में उपचुनाव में कांग्रेस को तगड़ा झटका लगा। नतीजों और जाते नेताओं पर माथापच्ची करने के बजाय प्रियंका गांधी ने विचार किया कि अब अगर यूपी की राजनीति करनी है तो संगठन को मजबूत करना होगा। विधायक अजय कुमार लल्लू को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर नई टीम का गठन भी कर दिया। इस कमेटी में ज्यादातर नए और युवा चेहरे हैं। बस, यही बात पुराने धुरंधरों को खटक गई। उनका मानना है कि पुराने वफादार नेताओं के अनुभव के लाभ जरूरी है। साथ उन्हें समायोजित कर उनका सम्मान भी करना था। इस पर विचार-विमर्श और आगे की रणनीति तय करने के लिए कुछ दिन पहले इन नेताओं ने बैठक की और हालिया निर्णयों पर सवाल उठाए तो पार्टी आलाकमान की त्यौरी चढ़ गई। पूर्व सांसद संतोष सिहं, पूर्व मंत्री रामकृष्ण, पूर्व एमएलसी सिराज मेहंदी, सत्यदेव त्रिपाठी, राजेंद्र सिंह सोलंकी, पूर्व विधायक भूधर नारायण मिश्र, नेकचंद पांडे, विनोद चौधरी, स्वयं प्रकाश गोस्वामी सहित 11 नेता छह साल के लिए निष्कासित कर दिए। यह वही रामकृष्ण हैं जिन्होंने कभी यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री टीएन सिंह को उपचुनाव में पटखनी दी थी और इंदिरा गांधी के प्रिय बन गए थे। ये कई साल तक पार्टी की अनुशासन समिति के अध्यक्ष रहे और अब अपने पर ही एक्शन से हतप्रभ हबैं। पर ये सभी पुराने “पराक्रमी” डरे नहीं हैं।
पार्टी गलियारों में सवाल उठाया जा रहा है कि इसके पहले भी कई नेता खिलाफ जा चुके हैं, बयानबाजी कर चुके हैं तो उन पर एक्शन क्यों नहीं लिया गया ? कोई भाजपा से सट तो कोई सपा से पट रहा था। तब उन पर मेहबानी क्यों की गई ? उपचुनाव के दौरान घर में बैठने या फिर अंदरखाने में पार्टी उम्मीदवार के खिलाफ काम करने वाले अभी भी आलाकमान के प्रिय क्यों बने हैं ? कुछ भी हो, संकट से जूझ रही कांग्रेस के साथ हमेशा साथ खड़े रहे नेता निष्कासन के बाद इसे अपना अपमान मान रहे हैं। अगर ये “पुराने चावल” किसी दूसरी हांडी में पहुंच गए या अपनी “अलग चूल्हा” बना लिया, तब शायद यह कांग्रेस को एक और तगड़ा झटका लग सकता है। पार्टी का एक धड़ा यह भी मानता है कि इनके रहने या न रहने से कोई फर्क नहीं पड़ना। इनका कोई जनाधार नहीं रह गया है। पूरी नाराजगी और लड़ाई पद के लिए ही है।