उफ, और नहीं, बस और नहीं….

0
1293

हर अकेली लड़की की आवाज बन गई अनु

शैलेश अवस्थी

लड़खड़ाती, कांपती, सुबकती वह लड़की हाथ में तख्ती लिए संसद के सामने अचानक ही जा पहुंची। खाकी वर्दी ने उसे घेर लिया, धमकाया, डराया, लेकिन वह “मर्दानी” डटी रही। उस मासूम चेहरे पर आक्रोश, आंखों में अंगारे और जुबां पर जंग की ललकार थी। वह हुक्कमरानों को जगाना चाहती थी, झझकोरना चाहती थी। उस “अकेली” पर तत्काल “सरकारी बल” भारी जरूर पड़ा, लेकिन आज उसकी आवाज पूरी दुनिया सुन रही है।

यहां हम बात कर रहे हैं दिल्ली की छात्रा अनु दुबे की, जो कल संसद के सामने अकेले ही धरने पर जा बैठी थी। उसका यह आक्रोश उस दरिंदगी के खिलाफ था, जो हैदराबाद की युवा महिला चिकित्सक के साथ हुई थी। उस दिन उस महिला चिकित्सक के साथ हैवानियत की सारी हदें पार कर दी गई थीं। दुष्कर्मियों ने साजिश के तहत पहले तो उसकी स्कूटी पंचर की और फिर उसे मदद का झांसा देकर सुनसान जगह ले गए। वहां उसके साथ हैवानियत की। उसके साथ तब तक जबर्दस्ती की गई, जब तक उसका दम नहीं घुट गया। और फिर उसकी लाश के साथ भी…उफ। इसके बाद उसे जिंदा जला दिया गया। क्रूरता भी कांप उठे, एसी कठोर यातना। यह सब किया एक, दो, तीन नहीं, पूरे चार हैवानों ने।

निर्ममता की यह सच्ची कहानी सुनकर हर उस अकेली आती-जाती लड़की और उसके मां-बाप का दिल दहल गया। उनमें से एक है अनु दुबे, जिसका कलेजा कांप गया, उससे रहा नहीं गया, वह बेचैन हो गई और यह गुहार करने वह अकेली ही संसद की चौखट तक पहुंच गई, कि “आकाओं” अब तो जागो। इसका नतीजा हुआ कि उसे थाने पहुंचा दिया गया, लेकिन उसकी आवाज को नहीं दबाया जा सका। आज मुझे शहीद-ए-आजम भगत सिंह याद आ रहे हैं। भगत सिंह चाहते तो असेंबली में किसी पर बम मार सकते थे, लेकिन उन्होंने एसा नहीं किया, धमाका जरूर किया पर सिर्फ अंगरेजों को आजादी की मांग सुनाने के लिए। “करो धमाका, उठो जवान, तभी सुनेंगे बहरे कान…।“ वह भागे नहीं, अंगरेजी हुकूमत ने गिरफ्तार करवा दिया, फांसी हुई, पर आजादी की कहानी ही नहीं लिखी, न जाने कितने नौजवानों की प्रेरणा बन गए। आज “आधी आबादी” भी आजादी मांग रही है हैवानों से, कुरीतियों से, कुत्सित मानसिकताओं से और परंपराओं के नाम पर अपना उल्लू सीधा करने वाले पाखंडियों से।

अनु दुबे कल “अकेली आवाज” थी, पर आज पूरा जमाना उसके साथ खड़ा है और उसकी इस जांबाजी ने हुक्कमरानों के कान भी खड़े कर दिए हैं। अब महिला सुरक्षा पर नए सिरे सोचने-विचारने और योजना बनाने की जरूरत है। कुछ “माइंड सेटिए” ज्ञान बघार सकते हैं कि लड़कियों को अपने वस्त्रों पर ध्यान देना चाहिए, बाल खुले नहीं, चोटी में गूंथना चाहिए, लड़कों से दोस्ती नहीं करनी चाहिए, सिर झुकाकर आना-जाना चाहिए। यानी पूरी नसीहत लड़कियों को ही। क्या अपने सपूतों को एसी नसीहत नहीं दे सकते ? उन्हें नहीं समझा सकते कि लड़कियां इस्तेमाल की वस्तु नहीं, सम्मान की पात्र हैं।

मुझे याद आता है कि कभी एक एसा पोस्टर मेलों, ढेलों और बाजारों में मिलता था, जिसमें “नर्क” के दृश्यों के जरिए पाप और पुण्य समझाया जाता था। एक चित्र एसा भी था जिसमें “परस्त्रीगमन” पर दुष्कर्मी को आरे से काट दिया जाता है। अब तो हाथों में मोबाइल पर नाचती अंगुलियां कोई और ही “संस्कार” सिखा रही हैं। इसका यह मतलब नहीं कि मोबाइल या तकनीक का इस्तेमाल न हो, पर कहीं न कहीं “निगरानी तंत्र” भी मजबूत होना जरूरी है। कहीं किसी लड़की के साथ कुछ गलत होता है तो वह यह सोचकर मुंह बंद रखती है कि यदि उसने शिकायत की तो कहीं उसे ही न दोषी करार दिया जाए। कभी बदनामी के डर से उसे चुप करा दिया जाता है, लेकिन आज अनु की आवाज नगाड़खाने में तूती नहीं रह गई है। उसे सुनना और समझना होगा, क्योंकि यह पीड़ा हर अकेली लड़की की है। आज वे माता-पिता और भाई कितने बेचैन होंगे, जिनकी बेटी और बहन कहीं बाहर अकेली पढ़ने गई है या नौकरी कर रही है। न जाने कितने फोन बेटियों के पास पहुंचे होंगे….बेटी अपना ध्यान रखना। कई तो बेटियों को वापस बुलाने की सोच रहे होंगे। सुरक्षाघेरों से घिरे राजनेता क्या इनकी व्यथा समझेंगे ? संसद में सुरक्षा वापसी पर दिनभर हंगामा करने वाले क्या बेटियों की सुरक्षा पर भी कभी मुखर होंगे ?

उस महिला चिकित्सक के दर्दनाक दुखांत से हर संवेदनशील दिल सिहर उठा है। हाथों में जलती मोमबत्तियां लेकर मार्च, धरना और प्रर्दशन का दौर शुरू हो गया है। क्या इतना काफी है ? कुछ तो फोटो खिंचवाने के बाद मोमबत्तियां बुझाकर किसी अगले प्रदर्शन के लिए रख लेंगे, लेकिन फिर भी उनका आभार कि कम से कम वे बाहर तो निकले। अपनी भारतीय संस्कृति तो रामायण, महाभारत और गीता की है। गौर कीजिए, सीता को रावण उठा ले गया तो उसके बाद “लंकादहन” हो गया, भरी सभा द्रौपदी का चीरहरण हुआ तो “महाभारत” हो गई। रामायण की एक चौपाई है…”अनुज बधू, भगिनी, सुत नारी, सुन सठ इन कन्या समचारी, इन्हें कुदृष्टि विलोके जोई ताहि वधे कछु पाप न होई..।“ तो भारतीय संस्कृति की दुहाई देने और गीता पर हाथ रखकर शपथ लेने वाले इस पर क्यों नहीं विचार करते ? नाबालिग से दुष्कर्म पर सजा-ए-मौत का कानून है, लेकिन किसी भी उम्र की लड़की या महिला के साथ भी एसी क्रूरता हो तो क्या एसी ही सजा नहीं मिलनी चाहिए। अब जरूरत तो इस बात की है कि कुछ एसा कानून बने कि एसे जघन्य पाप करने वाले को सरेआम एसी कड़ी सजा दी जाए कि एसी क्रूरता करने से पहले कोई हजार बार सोचे। इसमें कैसा मानवाधिकार….।

लड़कियां डरी हुई हैं। लेकिन उन्हें अनु दुबे की एक बात जरूर याद रखनी चाहिए…”कर लो जो करना है, अब डरने का मन नहीं करता…।“ अनु के यह वाक्य अखबार की सुर्खियों तक सीमित नहीं रहने वाला, यह शिलालेख बनेगा। बेटियों, इस लाइन को अपने में बसा लीजिये, शर्म, संकोच और भय कुचल डालिए। याद रखिये इन्हें नहीं कुचला तो ये आपको कुचल डालेंगे। उस महिला चिकित्सक ने दम भले ही तोड़ दिया हो, लेकिन उसकी चीखें अभी भी गूंज रहीं हैं, जो तब तक शांत नहीं होंगी, जब तक गुनाहगारों को कठोर सजा नहीं मिल जाती और जिम्मेदार जब तक हर बेटी की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम नहीं करते। दुष्यंत कुमार का एक शेर मौजू लगता है…”बढ़ गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, फिर हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए, मेरे सीने में हो या तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग तो बस आग जलनी चाहिए…।“ बहुत हो चुका, बहुत हो चुका, बस अब और नहीं….।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

[email protected]