दिल्ली का दंगल दिखा देगा किसमें कितना दम
शैलेश अवस्थी
तारीखों के एलान के बाद दिल्ली विधानसभा चुनाव की हलचल तेज हो गई है। वैसे तो यह चुनाव छोटा है पर देश की राजधानी में है, इसलिए इसकी अहमियत बड़ी है। भाजपा के लिए यह चुनाव उसकी साख, उसके दम, उसकी लोकप्रियता और उसकी स्वीकार्यता की परीक्षा है। आम आदमी पार्टी के लिए अपने को बरकरार रखना चुनौती है तो कांग्रेस के अस्तित्व का सवाल भी है।
कुल 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा चुनाव किन मुद्दों पर लड़ा जाता है, यह देखना दिलचस्प होगा। आम आदमी पार्टी ने अपनी रणनीति बदली है। अब वह मोदी को नहीं कोसती, सिर्फ स्थानीय मुद्दों पर फोकस कर रही है। वह यह बताने की कोशिश कर रही है कि केंद्र सरकार के भारी विरोध के बीच वह पांच साल में बहुत कुछ करने में कामयाब हुई। स्कूलों की सूरत बदली तो मोहल्ला क्लीनिक ने दिल्ली की बड़ी आबादी को खासी राहत दी है। बिजली और पानी एक सीमा तक मुफ्त कर दिया है तो महिलाओं को अब बसों में टिकट लेने की जरूरत नहीं पड़ती। इसके बावजूद उनकी सरकार घाटे में नहीं है, जन सुविधाओं के लिए पैसे और संसाधन का रोना नहीं रोती। कोई भ्रष्टाचार का आरोप भी सिद्ध नहीं हुआ है। अपनी इन उपलब्धियों को बताकर वह मैदान में है।
यह गौर करने के बाद है कि लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत प्राप्त करने वाली भाजपा के लिए हालिया विधानसभा चुनाव झटका साबित हुए हैं। हरियाना में बैशाखी के सहारे सरकार बनाने में कामयाब रही, लेकिन महाराष्ट्र में दोस्त शिवसेना को साध नहीं सकी और वहां बाजी हाथ निकल गई। झारखंड में कड़ी मेहनत के बावजूद दोबारा सरकार नहीं बना सकी। इन विधानसभा चुनावों में कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने, तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाने, नागरिक संशोधन कानून बनाने को उपलब्धि को भाजपा नेताओं ने खूब जिक्र किया पर सफलता नहीं मिली। अब देखना है कि दिल्ली में किन मुद्दों का जिक्र भाजपा करती है।
कांग्रेस को यदि दिल्ली का तख्त हासिल करना है तो उसे बहुत मेहनत करनी होगी। शीला दीक्षित के निधन के बाद कोई सर्वमान्य नेता वहां नहीं दिखता। सोनिया, राहुल और प्रियंका के बूते नैया पार होगी या नहीं, यह तो वक्त ही बताएगा, लेकिन यह भी सच है कि वहां कांग्रेस का “होमवर्क” नजर नहीं आ रहा है। संगठन बिखरा है और आम आदमी से गठबंधन की राह आसान नहीं लगती। लोकसभा चुनाव में आम आदमी से गठबंधन नहीं हो सका था। कांग्रेस का एक धड़ा चाहता है कि विधानसभा चुनाव आम आदमी पार्टी से मिलकर लड़ा जाए पर इस पर अभी सहमति नहीं बनी है।
पिछली बार (2015) आम आदमी पार्टी ने 70 में 67 सीटें जीतकर राजनीतिक पंडितों को चौंका दिया था। भाजपा तीन सीटों पर सिमट गई थी और कांग्रेस का तो खाता ही नहीं खुला था। कांग्रेस को ज्यादातर प्रत्याशियों की जमानत ही जब्त हो गई थी। कांग्रेस के पास मुख्यमंत्री के लिए कोई दमदार चेहरा भी नजर नहीं आ रहा है। यही हाल भाजपा का है। मनोज तिवारी के सहारे नैया पार होती नहीं दिख रही। जाहिर है कि चुनावी नैया के खेवैया नरेंद्र मोदी ही हैं और उनमें धारा को मोड़ देने का करिश्मा भी है। दिल्ली में जेएनयू और जामिया भी हैं और यहां हो रहे आंदोलन का कुछ असर चुनाव पर भी पड़ सकता है।
अब दिल्ली प्रदेश का चुनाव बता देगा कि जनता का मूड क्या है। नागरिकता कानून क्या असर होगा, राष्ट्रीय मुद्दे कारगर होंगे या स्थानीय ?, अरविंद केजरीवाल का काम बोलेगा या नरेंद्र मोदी का जादू चलेगा ? दिल्ली के चुनाव किसी हद तक तस्वीर साफ कर देंगे। साथ ही नतीजों के बाद बिहार विधानसभा के सियासी समीकरण भी आकार लेंगे। बहरहाल दिल्ली में हर दल के शूरमा डट गए हैं, रणनीति बन रही है और 11 फरवरी को नतीजे बता देंगे कि किस में कितना दम है। इसी के साथ यह भी पता लग जाएगा कि राजनीति की हवा कैसी है और किस ओर बह रही है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं…।