अभी मोहब्बत नई-नई है…

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महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार की फिलहाल जय-जय

शैलेश अवस्थी

खामोश लब हैं, झुकी हैं पलकें, दिलों में उलफत नई-नई है

अभी तकल्लुफ है गुफ्तगू में, अभी मोहब्बत नई-नई है….

महाराष्ट्र में हालिया गठबंधन के बाद शबीना अदीब की गजल का यह मुखड़ा अनायास ही याद आ गया। मुख्यमंत्री पद के लिए मचली शिवसेना ने भाजपा की “न” पर उससे हाथ छुड़ाया ही नहीं, बिल्कुल झटक दिया। 30 साल पुरानी मोहब्बत कुर्बान कर दी। हालात ने एसा माहौल पैदा किया कि शिवसेना को अपने कट्टर दुश्मन कांग्रेस-एनसीपी पर प्यार आ गया। सत्ता की डोली के लिए यह उलफत इस कदर परवान चढ़ी कि रिश्ते-नातों की डोर तक टूटने की नौबत आ गई।

कहते हैं कि जब कोई किसी को पंसद करता है तो उसकी बुराई नजर नहीं आती और जब नापसंद करता है तो उसमें अच्छाई नजर नहीं आती। महाराष्ट्र की राजनीति में कुछ एसा ही नजारा दिख रहा है। कांग्रेस भूल गई कि यह वही शिवसेना है, जिसका जन्म ही कट्टर हिंदुत्व पर हुआ और इसी के बल पर उसने किसी हद तक लोकप्रियता हासिल की थी और यह वही एनसीपी के मुखिया शरद पवार हैं, जिन्होंने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी से आजीवन दूर रखने में भूमिका अदा की थी। सेक्युलर का ढोल पीटने वाली कांग्रेस ने भी अपनी नीति-रीति को तिलांजलि देकर शिवसेना के प्रेम-प्रस्ताव को स्वीकार ही नहीं किया, खुलम्मखुला गलबहियां डालकर घूमने लगी। यानी सरकार में भागेदारी। महाराष्ट्र में नंबर चार पर रही कांग्रेस नंबर-दो (उपमुख्यमंत्री) की कुर्सी पर फूली नहीं समा रही है। उसे न तो रुसबाई की चिंता है और न ही अपने पार्टी के समाज और बुनियादी सिद्धांतों की।

एनसीपी का वजूद तो महाराष्ट्र तक ही है, उसे कोई खास फर्क शायद न पड़े, लेकिन कांग्रेस को तो समूचे देश में राजनीति करनी है। क्या जवाब देगी झारखंड में ? दिल्ली के चुनाव में क्या धर्मनिरपेक्षता की बात कर पाएगी ? अपने बचे-खुचे उस वोट बैंक को सुरक्षित कर पाएगी जो सेक्युलर की छवि के नाम पर मिलते रहे हैं ? कांग्रेस जब शिवसेना के साथ “डेट” कर रही थी, तब क्या ये सवाल उसके जेहन में नहीं आए होंगे ? या फिर कुरसी की खातिर और भाजपा को पटखनी देने के लिए यह चाल चली ? क्या इस अल्पकालिक फायदे के लिए कांग्रेस अपनी दीर्घकालीन नीति-रीति बदलेगी या फिर मौका देख फिर पाला बदलेगी ? तभी तो भाजपा को यह कहने का मौका मिल गया कि यह गठबंधन ज्यादा दिन चलने वाला नहीं है। ज्यादातर राजनीतिक पंडितों का भी यही मत है। यानी भविष्य में सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही हो सकता है।

अब बात शिवसेना की। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठकर शिवसेना की मुराद तो पूरी हो जाएगी, लेकिन जब कभी चुनाव में उसे जनता की अदालत में जाना होगा, तब उससे सवाल तो पूछे ही जाएंगे। सवाल है कि जनादेश तो भाजपा के साथ के लिए था, दोनों की विचारधारा भी लगभग एक ही थी, तो फिर क्या सिर्फ ऊंची कुर्सी के लिए जनता की भावनाओं को दरकिनार कर दिया गया ? इस सबके बीच एनसीपी ने राजनीतिक मुनाफा तो कमा ही लिया। इस घटनाक्रम के बाद महानायक के रूप में उभरे शरद पवार के हाथ में सत्ता का रिमोट कंट्रोल रहेगा। उनकी ताकत और चतुराई को लोहा मान चुके हर दल के दिग्गज उनसे पंगा लेने से पहले कई बार सोचेंगे।

देखा जाए तो सबसे बड़ा झटका भाजपा को लगा है। फडणवीस की किरकिरी सबसे ज्यादा हुई। दरअसल आलाकमान ने उन पर विश्वास करके ही आननफानन उनके प्लान को हरी झंडी देकर शपथ ग्रहण भी संपन्न करवा दिया। सुप्रीम कोर्ट फैसले के बाद अजित पवार की परीक्षा की घड़ी आई तो वह खाली हाथ लेकर खड़े हो गए। इधर, शरद पवार की निगरानी में एनसीपी-कांग्रेस और शिवसेना की “डेट” लगातार चलती रही और यह रोमांस आखिरकार “गठबंधन” में बदल ही गया। अजित अपने चाचा के राजनीतिक कौशल और चाची की भावनात्मक मनुहार के आगे नतमस्तक हो गए। इसके बाद तो भाजपा का खेल खत्म हो गया। भाजपा से दो दिन की मोहब्बत कर अजित पवार विलेन बन गए।

फिलहाल तो शबीना अदीब की इस गजल को महाराष्ट्र के ताजा राजनीतिक सीन से जोड़कर नए गठबंधन के मायने समझिये और मजा लीजिये… “अभी तो नींद न आएगी तुमको, अभी न हमको सुकूं मिलेगा, अभी तो धड़केगा दिल ज्यादा, अभी ये चाहत नई-नई है, फिजा में खुश्बू नई-नई है, गुलों में रंगत नई-नई है…।“  शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस का यह गठबंधन सरकार में रहते क्या एक-दूसरे को शक की निगाह से नहीं देखेगा ? क्या ज्यादा वक्त ताकाझांकी में नहीं जाया होगा ? शरद पवार के लिए कवि गोपालदास नीरज की यह लाइन शायद फिट हो रही हैइतने बदनाम हुए हम तो इस जमाने में, लगेंगी आपको सदियां हमें भुलाने में..।“ दूसरी तरफ, राजनीतिक दलों के और जनता के मन में शायद यह लाइन गूंज रही होगी…”अल्ला जाने क्या होगा आगे..।